मराठा क्यों कर रहे हैं आरक्षण की मांग... इतने सालों में उनकी मांगों में क्या हुए बदलाव

महाराष्ट्र में मराठा प्रमुख समुदाय है और यह राज्य में राजनीतिक हालात बदलने का माद्दा रखता है. ऐसे में मराठा आरक्षण पर हालिया विरोध प्रदर्शन ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक माहौल गर्म कर दिया है. मराठा समाज की आवाज उठाने वाले मनोज जारांगे नौकरियों और शिक्षा में समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को लेकर मराठवाड़ा के हृदय जालना में 16 दिनों से अनशन पर थे. जारांगे ने मराठों के लिए ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर 29 अगस्त को अंतरवाली सरती गांव में अपनी भूख हड़ताल शुरू की और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के आश्वासन के बाद 14 सितंबर को इसे समाप्त कर दिया.

लेकिन जारांगे का विरोध 2016 और 2017 के बीच पूरे महाराष्ट्र में हुई पिछली मराठा रैलियों से अलग है. जहां, मराठों ने अतीत में सरकारी नौकरियों और शिक्षा में समुदाय के लिए आरक्षण की मांग की है, वहीं जारांगे मराठों के लिए कुंबी जाति प्रमाण पत्र की मांग कर रहे हैं ताकि वे ओबीसी समूहों में शामिल किए जा सकें.

दूसरी तरफ ओबीसी समूह मराठों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिये जाने का विरोध कर रहा है. जहां मराठा राज्य की 32 फीसद आबादी हैं वहीं ओबीसी की आबादी राज्य में 52 फीसद हैं और यह राज्य में 382 जातियों में विभाजित हैं.

मराठा आरक्षण की मांग और ओबीसी में शामिल करने का हालिया आह्वान एक जटिल मामला है. आइए मराठों की आरक्षण की मांग की शुरुआत पर एक नजर डालते हैं और जानते हैं इस मांग का सफर  

मराठा, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से एक “योद्धा” जाति के तौर पर पहचाना जाता है, उनमें मुख्य रूप से किसान और जमींदार समूह शामिल हैं और महाराष्ट्र में आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा हैं. यही नहीं 1960 के बाद से बने 20 मुख्यमंत्रियों में से 12 राजनीतिक रूप से प्रभावशाली समुदाय से ही रहे हैं. हालांकि, कृषि क्षेत्र में हिस्सेदारी और समस्याओं में विभाजन के साथ, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के मराठों की समृद्धि में लगातार गिरावट आई है.

मराठा आरक्षण की मांग दशकों से चली आ रही है. 1981 में, मराठों के लिए आरक्षण की मांग शुरू हुई जब मथाडी लेबर यूनियन के नेता अन्नासाहेब पाटिल ने प्रस्ताव के समर्थन में मुंबई में एक मोर्चा निकाला था. मराठा महासंघ और मराठा सेवा संघ ने 1997 में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मराठा आरक्षण के लिए एक बड़ा आंदोलन चलाया. इस मुद्दे को 2000 में फिर से उठाया गया.

अगस्त 2016 में, मराठा क्रांति मोर्चा के तहत औरंगाबाद में मराठा रैली निकाली गई यह रैली अहमदनगर में कोपराडी गांव में एक 15 साल की लड़की के साथ बलात्कार और हत्या की निंदा करने के लिए निकाली गई थी. इसके बाद 2016 और 2017 में राज्य भर में सरकारी रोजगार और शिक्षा में समुदाय के लिए आरक्षण को लेकर 58 मौन लेकिन भारी विरोध प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनों के बाद मराठा आरक्षण, बलात्कारियों को कड़ी सजा और किसानों के लिए ऋण माफी की मांग करते हुए जिला कलेक्टर को दस सूत्री मांग पत्र सौंपा गया.

दिसंबर 2016 में, महाराष्ट्र सरकार ने भी मराठों के लिए आरक्षण को वैध ठहराने के लिए एक हलफनामा दायर किया और दावा किया कि इसमें संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया है. इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 2017 में न्यायाधीश एनजी गायकवाड़ की अध्यक्षता में एनजी गायकवाड़ समिति का गठन किया.

आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया है कि मराठों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग (एसईबीसी) के तहत कोटा दिया जाना चाहिए. भले ही पैनल ने मराठा समुदाय के लिए आरक्षण का सुझाव दिया, लेकिन उसने कोटा प्रतिशत को परिभाषित नहीं किया और इसका फैसला राज्यों पर छोड़ दिया. इस तरह मराठों को 2018 में महाराष्ट्र राज्य सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा अधिनियम के तहत आरक्षण दिया गया था. इस कदम को राज्य विधान सभा और परिषद दोनों द्वारा स्वीकार किया गया था; और उन्हें कांग्रेस और एनसीपी जैसे विपक्षी दलों का भी समर्थन प्राप्त हुआ था.

दिसंबर 2018 में, बॉम्बे हाइकोर्ट में कई याचिका दायर की गई थी, जिसमें मराठा आरक्षण के फैसले को चुनौती देते हुए कहा गया था कि यह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन हैं, जिसमें कहा गया है कि आरक्षण 50 फीसद से ज्यादा नहीं होना चाहिए. उच्च न्यायलय ने मराठों को आरक्षण को बरकरार रखते हुए निर्दिष्ट किया कि मराठों को मौजूदा 16 प्रतिशत आरक्षण के बजाय, नौकरियों में 13 प्रतिशत और शैक्षिक अनुदान में 12 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए. इस तरह से न्यायालय ने आरक्षण के फीसद को घटा दिया. उच्च न्यायालय के आदेश के बाद समुदाय को 2020 में तब बड़ा झटका लगा, जब फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दर्ज की गई. सितंबर 2020 में, सितंबर 2020 में शीर्ष अदालत ने मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला किया और कहा कि यह आरक्षण भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निर्धारित प्रावधानों का उल्लंघन करता है. मई 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने मराठों के लिए आरक्षण के प्रावधान को रद्द कर दिया. 

सुप्रीम न्यायालय के मराठा आरक्षण को रद्द करने और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा बरकरार रखने के बाद, महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि जब तक मराठा आरक्षण का मुद्दा हल नहीं हो जाता, तब तक समुदाय के आर्थिक रूप से कमजोर सदस्य EWS कोटा से लाभ उठा सकते हैं.

राज्य सरकार ने इस साल की शुरुआत में कहा था कि वह सुप्रीम कोर्ट में एक सुधारात्मक याचिका दायर करेगी और कहा कि समुदाय के ‘पिछड़ेपन’ के विस्तृत सर्वेक्षण के लिए एक नया समर्पित पैनल बनाया जाएगा. हालांकि, राज्य सरकार ने अभी तक सुप्रीम कोर्ट में सुधारात्मक याचिका दाखिल नहीं की है.

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