प्रयागराज शहर से दूर गंगा के किनारे माघ स्नान चल रहा है। तट पर सभी अखाड़ों का टेंट लगा है। रात की रोशनी में दूर से देखने पर चारों ओर छोटे-छोटे चमचमाते बल्ब इन टेंटों में दिखाई दे रहे हैं। इस खास महीने की वजह से पूरे प्रयागराज में पैर धरने की जगह नहीं। जिस किनारे पर मैं हूं, वहां सिर्फ एक टेंट लगा हुआ है। यह टेंट है गायत्री त्रिवेणी प्रयागपीठ पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य त्रिकाल भवंता सरस्वती जी महाराज का। यह अखाड़ा बाकी अखाड़ों से अलग है। अखाड़े का प्रबंधन और तमाम गतिविधियां को देखने के लिए मैं पहुंच चुकी हूं ‘अरेल सेल्फी पॉइंट’ के पास लगे इस अखाड़े में। बाहर एक महिला साध्वी मुझे लेने आईं। उन्होंने बताया कि कुछ ही देर में यहां एक कार्यक्रम शुरू होने वाला है, जिसमें शहर की कुछ महिलाओं को सम्मानित किया जाएगा। उसके बाद आप अपने सवाल पूछ सकती हैं।
टेंट के पीछे एक और टेंट में भवंता सरस्वती जी महाराज विराजमान हैं। आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ है। पास में ही लिट्टी-चोखा बन रहा है। कुछ देर बाद मैं उनके टेंट में मिलने पहुंचती हूं। भवंता सरस्वती खुद को अर्द्धनारीश्वर का रूप बताती हैं। कहती हैं, ‘नौ- दस साल पहले इस अखाड़े की नींव रखी गई थी।’ मैंने उनसे इस अखाड़े के नींव रखने की वजह पूछी? कहने लगी, ‘52 शक्तिपीठ में पूजा तो देवी की होती है, लेकिन महिलाओं को ही गर्भगृह में जाने की इजाजत नहीं। देवी को नहलाने से लेकर उनके श्रृंगार तक कि जिम्मेदारी पुरुष की है। हमारी मांग बस इतनी थी कि ये अधिकार महिलाओं को दिया जाना चाहिए। इन्हीं कारणों से इस अखाड़े की नींव रखी गई थी।’ कुछ सेकेंड चुप रहने के बाद भवंता सरस्वती जी महाराज बोलीं, 'आदि शंकराचार्य ने तो चार अखाड़ों का ही गठन किया था, लेकिन आपसी मतभेद और विचारों में भिन्नता के कारण आज देश में 13 अखाड़े बन चुके हैं। जब 4 से 13 अखाड़े बन सकते हैं तो 14वें के बनने में क्या ऐतराज हो सकता है।
भवंता सरस्वती जी महाराज आयुर्वेदिक औषधियों में PhD हैं। वो पहले प्रयागराज में ही मुस्लिम महिलाओं के लिए 'भारतीय राष्ट्रीय विकास परिषद' नाम से एक NGO चलाती थीं। उन्होंने चुनाव भी लड़ा था, लेकिन असफल रहीं।
क्या अखाड़ा अलग करने का यही मकसद था? भवंता सरस्वती जी महाराज कहती हैं, ‘महिलाओं को साधना से जोड़ना भी मेरा मकसद था। आप खुद देखिए बहुत सी महिलाएं साधना में आना चाहती हैं। खुद को सुरक्षित महसूस न करने की वजह से वो ऐसा नहीं कर पातीं। ऐसा देखने में भी आया है कि महिलाओं के साथ आश्रमों में ठीक व्यवहार नहीं होता। वो उनकी साधना के लिए सुरक्षित स्थान नहीं है। उनके लिए अलग से सुविधाएं नहीं होतीं। यहां तक कि उनके यौन शोषण की कहानियां भी सुनने को मिलती हैं। महिला अखाड़े में ऐसा कुछ नहीं होगा, वो निडर और सुरक्षित भाव से साधना कर सकती हैं।’ आपने यह रास्ता क्यों चुना? भवंता सरस्वती जी महाराज कहती हैं, ‘बचपन से ही अपने घर में मैंने लड़कियों के साथ भेदभाव होते देखा था। धीरे-धीरे मैंने साधना का रास्ता अपना लिया। मुझे लगता था कि साधना और धर्म मार्ग पर भेदभाव नहीं हो सकता। मैं गलत थी। यहां भी भेदभाव ही देखने को मिला इसलिए अपनी अलग दुनिया बनाने की सोची। आप जानती ही होंगी जब अलग अखाड़ा बनाया तो खुलकर विरोध हुआ। यह महिला-पुरुष के बीच का भेदभाव ही तो है।’
अखाड़े में साध्वी बनने के नियम क्या हैं? एक बार आप साध्वी बन गईं तो आपको ताउम्र भगवा पहनना होगा। शराब और मांस से दूर रहना होता है। साधना करनी पड़ेगी, सिर्फ चोला पहनकर आप अपनी ड्यूटी ईश्वर के प्रति पूरा नहीं कर सकतीं। खाने में भी आप सिर्फ सादा, उबला हुआ खाना खा सकती हैं। दरअसल, संन्यासिन बनने से पहले महिला के घर, परिवार और उनके पिछले जन्म की कुंडली भी खंगाली जाती है। संन्यासिन बनने वाली महिला साधु को साबित करना पड़ता है कि उसका अपने परिवार और समाज से अब कोई रिश्ता-नाता नहीं रह गया है। उसे परिवार से कहना पड़ता है कि मैं अब तुम लोगों के मर चुकी हूं। मेरा तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं। इसके बाद ही उसे दीक्षा दी जाती है। उसे सांसारिक वस्त्र उतारकर साध्वी के कपड़े पहनने होते हैं। केश उतारकर खुद अपना पिंडदान वो करती है। इसके बाद 108 बार गंगा में डुबकी लगाकर वो शुद्ध होती है। इसके बाद ही महिला संन्यासिनों की साधना शुरू होती है।
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