Supreme Court Verdict Today: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 1998 के नरसिम्हा राव मामले में फैसले को पलट दिया. सात जजों की संविधान पीठ ने कहा कि सांसद या विधायक अनुच्छेद 105(2) और 194(2) की आड़ लेकर घूसखोरी के मुकदमे से बच नहीं सकते. 1998 के फैसले में इन्हीं दो प्रावधानों का हवाला देकर SC ने सांसदों-विधायकों को 'इम्यूनिटी' दी थी. यह इम्यूनिटी सदन के भीतर भाषण या वोट के सिलसिले में थी. तब 3-2 से दिए गए फैसले को सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में बनी सात जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से पलट दिया है. SC ने ताजा फैसला JMM नेता सीता सोरेन की अपील पर दिया. सोरेन 2012 में राज्यसभा चुनाव के लिए वोट के बदले रिश्वत लेने की आरोपी हैं. उन्होंने 194(2) के तहत इम्यूनिटी का दावा किया था मगर झारखंड हाई कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी. फैसले को SC में चुनौती दी गई. पिछले साल अक्टूबर में दो दिन सुनवाई के बाद, संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया था.
सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संविधान पीठ ने साफ कहा कि यह ऐसा मुद्दा है जिसका जनहित पर 'व्यापक प्रभाव' है. अदालत ने कहा, 'पीवी नरसिम्हा राव मामले में फैसले का सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है. यदि फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया गया तो इस अदालत द्वारा गलती को बरकरार रखने की अनुमति देने का गंभीर खतरा है.'
SC ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 ऐसे माहौल को बनाए रखने की कोशिश करते हैं जहां विधायिका के भीतर बहस और विचार-विमर्श हो सके. यह उद्देश्य तब नष्ट हो जाता है जब किसी सदस्य को रिश्वतखोरी के चलते किसी विशेष तरीके से वोट देने या बोलने के लिए प्रेरित किया जाता है. अदालत ने कहा कि 'अनुच्छेद 105 या 194 के तहत रिश्वतखोरी को छूट नहीं दी गई है क्योंकि रिश्वतखोरी में शामिल सदस्य एक आपराधिक कृत्य में शामिल होता है.' शीर्ष अदालत ने कहा कि हमारा मानना है कि रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकारों द्वारा संरक्षित नहीं है.
अनुच्छेद 105(2) में कहा गया है कि संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा. राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को छूट देने वाला एक संबंधित प्रावधान अनुच्छेद 194(2) में निहित है. मतलब यह कि किसी MP या MLA पर सदन के भीतर कही गई बात या वोट को लेकर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
क्या है नरसिम्हा राव vs CBI, JMM घूसकांड केस?
1991 लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में जो गठबंधन सरकार बनी, उसके पास बहुमत नहीं था. बहुमत का आंकड़ा 272 था और कांग्रेस ने सिर्फ 232 सीटें जीती थीं. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. देश आर्थिक संकट में घिरा था, राव सरकार ने उदारीकरण का रास्ता खोला तो सियासी भूचाल आ गया. रही-सही कसर 1992 में बाबरी मस्जिद ढांचे के विध्वंस ने पूरी कर दी. विपक्ष ने जुलाई 1993 में राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया.
लोकसभा में उस समय 528 सदस्य थे मतलब बहुमत के लिए 264 वोट चाहिए थे. बाहर से समर्थन देने वाली पार्टियों को मिलाकर राव सरकार के पास 251 वोट थे. यानी उसे कम से कम 13 वोट और चाहिए थे. 28 जुलाई को जब वोटिंग हुई तो सब हैरान रह गए. अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ 265 वोट पड़े, राव सरकार बच गई.
करीब साल भर बाद असल मामला खुला. आरोप लगने शुरू हुए कि झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के छह सदस्यों ने सरकार के पक्ष में रिश्वत लेकर वोट डाला. सीबीआई ने केस दर्ज किया. मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया. 1998 में पांच जजों की बेंच ने 3:2 से फैसला दिया. SC ने कहा कि सांसदों और विधायकों को संसद और विधानसभाओं में अपने भाषण और वोट से जुड़े मामलों में रिश्वत के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है. अदालत ने इसके लिए अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के प्रावधानों का हवाला दिया था.
फिर सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंचा केस
2012 में शिबू सोरेन की बहू और JMM की सीता सोरेन पर घूस लेकर राज्यसभा चुनाव में वोट डालने के आरोप लगे. उन्होंने 1998 वाले मामले का हवाला देते हुए इम्यूनिटी का दावा किया. झारखंड HC ने उनकी अपील खारिज कर दी. HC के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. SC ने पिछले साल कहा कि वह 1998 वाले फैसले की समीक्षा को राजी है. दो दिन तक सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2023 में फैसला सुरक्षित रख लिया था. आखिरकार, सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1998 वाले फैसले में संवैधानिक प्रावधानों की ठीक से व्याख्या नहीं की गई थी.
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