सत्ता वाली पार्टी और वैचारिक संगठन के बीच भले ही सब कुछ ठीक नहीं चल रहा हो, लेकिन दबदबा बरकरार है। गुजरात से सटे जिले के एक मंत्रीजी को इसका अच्छी तरह अहसास हुआ। वैचारिक संगठन से जुड़े उग्र तेवर वाले सीनियर मंत्री गुजरात से सटे जिले के दौरे पर थे। जूनियर मंत्री इसी जिले के हैं तो सीनियर के स्वागत में समर्थकों के साथ माला लेकर खड़े हो गए।
उस वक्त् हालत देखने लायक हो गई जब सीनियर मंत्रीजी गाड़ी रोके बिन ही दनदनाते हुए निकल गए। जूनियर मंत्री ने समर्थकों को यह तर्क देकर समझाने का प्रयास किया कि सीनियर मंत्री वैचारिक संगठन के प्रोग्राम में लेट हो रहे थे, लेकिन गाड़ी नहीं रोकने की बात आग की तरह फैल गई। पड़ताल करने पर पता लगा कि सीनियर मंत्री की गाड़ी में जूनियर मंत्री के विरोधी दो नेता साथ थे, गाड़ी नहीं रोकने का कारण यही था। यह घटना अब सियासी हलकों में खूब चर्चित हो रही है।
लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद सत्ता वाली पार्टी और विपक्षी पार्टी में हाईकमान के सामने नेताओं के सियासी कद नप गए हैं। नंबर घटने-बढ़ने का गणित लग चुका है। विपक्ष वाली पार्टी के संगठन मुखिया नतीजों के बाद से बाग-बाग हैं। इसका कारण भी है, हाईकमान तक सीधी पहुंच हो गई और नंबर बढ़ गए सो अलग।
विपक्षी पार्टी में हाईकमान की आंख-नाक माने जाने वाले एक राष्ट्रीय महासचिव संगठन मुखिया के मुरीद हो गए बताते हैं। वे उनके बारे में काफी जानकारी इकट्ठा कर रहे थे। दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई है। अब इससे ज्यादा और क्या चाहिए? अब तक इतना एक्सेस युवा नेता और पूर्व मुखिया के पास ही था। अब इस फेहरिस्त में संगठन मुखिया का नाम भी जुड़ गया है। अब यूं ही सियासत को परिस्थितियों का खेल नहीं कहा जाता है।
सियासत में पग-पग पर चालाकियां हैं। जो चालाकी दिखाना जानते हैं, वे अच्छे नेता माने जाते हैं। देश की राजधानी में नई सरकार बनी, नए मंत्रियों ने शपथ ली। अब प्रदेश से भी मंत्री बने तो सत्ता वाली पार्टी के सांसद भी बधाई देने पहुंच। अब नए मंत्री को बधाई देने जाएं तो बढ़िया-महंगा गुलदस्ता साथ होना रिवाज बन गया है। तीसरी बार मंत्री बनने वाले नेताजी को बधाई देने पहुंचे सांसद ने गजब की ट्रिक अपनाई।
तीसरी बार मंत्री बनने वाले नेताजी के सामने दक्षिण के मंत्रीजी का बंगला है। राज्य के सांसद पहले दक्षिण वालों को बधाई देने गए, वहां गुलदस्तों का ढेर लगा था। सांसद ने अपने सहायक से कह दिया कि यहीं से गुलदस्ते ले लीजिए और सहायक ने वैसा ही किया। पड़ोसी मंत्री के बंगले से गुलदस्ते लेकर दो-दो मंत्रियों का स्वागत कर दिया। यह चालाकी एक दूसरे नेता ने पकड़ ली और बातों ही बातों में कहीं जिक्र कर दिया तो बात ओपन हो गई।
विधानसभा हारकर भी सियासत में चर्चित रहने वाले सत्ता वाली पार्टी के नेताजी फिर से किसी सदन में पहुंचने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। नेताजी के सियासी शुभचिंतक भी उनके संसद या विधानसभा सदन पहुंचने के उपाय तलाश रहे हैं। नेताजी के शुभचिंतकों ने उन्हें राज्यसभा की खाली हुई एक सीट पर टिकट की ट्राय करने का सुझाव दिया है।
राज्यसभा नहीं बैठे तो शेखावाटी से खाली हुई विधानसभा सीट पर लड़ने का भी विकल्प दिया है। दूसरे वाले आइडिया में बड़ा खतरा है। टिकट मिल जाए तो राज्यसभा वाला मामला ज्यादा ठीक है। नेताजी ने दिल्ली के शुभचिंतकों से सपंर्क करना शुरू कर दिया है, आगे उसका असर दिख ही जाएगा।
ब्यूरोक्रेसी में हर पार्टी के समर्थक रहते हैं और जिन अफसरों को सियासत में उतरना है वे पहले ही तैयारी शुरू कर देते हैं। अब चरैवेति-चरैवेति स्लोगन वाले महकमे को ही लीजिए, इस महकमे के एक अफसर सांसद बन चुके हैं। इस महकमे में एक अफसर सत्ता वाली पार्टी से विधायक का टिकट चाहते हैं।
सत्ता वाली पार्टी से टिकट की चाहत रखने वाले अफसर ने पिछले दिनों एक जगह अपना दर्द साझा किया। अफसर का दर्द यह था कि उनके महकमे में राज बदलने का अहसास नहीं हो रहा, सब कुछ पुराने राज का ही सिस्टम चल रहा है। अब दर्द तो गहरा ही है, राज बदलने पर सिस्टम तो बदलना ही चाहिए। इस दर्द का राजनीति शास्त्र के साथ अर्थशास्त्र से भी गहरा संबंध हो सकता है।
विपक्षी सांसद को मिला नया सियासी आका
सियासत में कोई स्थायी दोस्त दुश्मन नहीं होता, यह कई बार सिद्ध हो चुका है। पहली बार जीते हुए एक सांसद को चुनावों के बाद नए सियासी आका मिलने की जबर्दस्त चर्चाएं हैं। लोकसभा चुनावों से पहले जो नेताजी उन्हें पार्टी में लेकर आए, अब वे उनके अकेले सियासी आका नहीं रह गए। एक दूसरे पावरफुल नेताजी का हाथ भी सांसद पर है। अब कोई भी नेता विकल्प तो रखेगा ही। सांसद ने सेफ्टी के तौर पर यह सब किया, लेकिन पहले वाले नेताजी के लिए यह चिंता की बात हो सकती है।
ब्यूरोक्रेसी के मुखिया ने बैठकों और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की झड़ी लगा रखी है। पिछले दिनों ब्यूरोक्रेसी के मुखिया की मैराथन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ने कइयों को परेशान कर दिया। लंबी वीसी से कई अफसरों ने दबी जुबान में अपना दर्द साझा किया। एक वीसी तो 11 घंटे तक चल गई, जिसमें बड़े अफसरों के साथ ब्लॉक लेवल पर एसडीएम तक जुड़े हुए थे।
अब मैराथन वीसी में फील्ड के अफसर पूरा दिन लगा देंगे तो उसके रिजल्ट आप समझ ही सकते हैं। इसी तरह का दर्द गांवों में नाइट स्टे के फरमान का है।
गांवों के सरकारी दफ्तरों में बुनियादी सुविधाएं नहीं होने से महिला अफसरों को रुकने में परेशानी हो रही है। परेशानी का इजहार भी किया है, लेकिन ब्यूरोक्रेसी के मुखिया का सख्त आदेश है।
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