अचार बेचकर एक करोड़ की कमाई:मां-बेटे ने ₹4 हजार से शुरुआत की; घरवाले कहते- अचार बेचकर किस्मत नहीं बदल सकते

‘पिछले साल यानी 2023 की बात है। जुलाई का महीना रहा होगा। मैं और मां यूट्यूब पर कुछ वीडियोज देख रहे थे। हमारी नजर कुछ ऐसे वीडियोज पर पड़ी, जहां अलग-अलग बिजनेस को शुरू करने की बातें हो रही थी।

एक-दो वीडियो देखने के बाद मां ने मुझसे कहा- मैं कितने सालों से अचार बना रही हूं। हम इसका बिजनेस भी तो कर सकते हैं। इससे मेरा उद्यमी बनने और गांव की महिलाओं को रोजगार देने का सपना भी पूरा हो जाएगा।

मैं थोड़ी देर सोचता रहा। मन में चल रहा था कि बिजनेस वह भी अचार का! लेकिन जब मां की ओर देखा तो लगा कि वाकई में वह कुछ करना चाह रही हैं। हम क्या कर रहे हैं, इस बारे में शुरुआती तीन-चार महीनों में हमने घर या पड़ोस में किसी को कुछ भी नहीं बताया।

आज 8-9 महीने के अंदर ही हम 80 लाख का बिजनेस कर चुके हैं। दो-तीन महीने में एक करोड़ हो जाएगा। किसी ने सोचा भी नहीं था कि घर के आंगन से शुरू हुआ हमारा आचार का बिजनेस एक करोड़ के टर्नओवर पर पहुंच जाएगा।’

19 साल के अमित प्रजापति बिजनेस जर्नी की कहानी सुना रहे हैं। अमित और उनकी मां सरोज प्रजापति अचार बनाने वाली कंपनी ‘मॉम्स पिकल्स’ के फाउंडर हैं।

19 की उम्र और इतना सफल बिजनेस, डर नहीं लगा कि लोग आपको सीरियस नहीं लेंगे?

अमित बताते हैं, ‘मैं तो तीन-चार साल पहले तक बिल्कुल बच्चे की तरह लगता था। कोरोना के बाद मेरा लुक थोड़ा बदला है। मैं ऐसा दिखने लगा। हमारे बिजनेस के लिए मेरा यह लुक अच्छा रहा। मार्केट में लोग मुझे सीरियस लेने लगे।’

अमित मध्यप्रदेश के अशोकनगर के रहने वाले हैं। अचार की मैन्युफैक्चरिंग इनके घर पर होती है। हाल ही में उन्होंने एक नया फार्म बनाया है, जहां प्रोसेसिंग यूनिट को शिफ्ट करने का प्लान है।

अमित की मां सरोज प्रजापति कुछ महिलाओं के साथ अचार बना रही हैं।

सरोज प्रजापति 8 साल अपने पंचायत की सरपंच रही हैं। वह कहती हैं, ‘हमेशा से ही गांव की गर्भवती महिलाओं को भारी काम करते हुए, ईंट उठाते देखा है। उन्हें निर्माणाधीन घरों में काम करते देखा है।

एक इंसान को दो वक्त की रोटी के लिए पता नहीं क्या-क्या करना पड़ता था। सरपंच रहने के दौरान मैं हमेशा सोचती थी कि कैसे इन्हें कोई दूसरा काम मिले। दूसरों के लिए क्या ही बोलूं, मैंने खुद भी खेतों में काम किया है।

दरअसल मैं 9 बहनों के बीच पली-बढ़ी हूं। पढ़ाई-लिखाई, अक्षर, किताब-कॉपी से कभी मुलाकात ही नहीं हुई। कोरी अनपढ़ हूं। मां-पापा के साथ हम सब बहनें खेतों में काम करने जाते थे। मां अचार बनाकर रख देती थीं। जब घर में सब्जी या दाल नहीं बनती, तो जो अचार बना रखा रहता, उसी के साथ हम लोग रोटी या चावल खा लेते। जब ब्याहकर ससुराल आई, तो यहां मायके से भी ज्यादा गरीबी थी।’

सरोज के पति यानी अमित के पिता बाबुल प्रजापति अपनी ट्रांसफर्मर बनाने की फैक्ट्री गए हुए हैं। अमित कहते हैं, ‘पापा की अपनी फैक्ट्री है। शुरू में हमारे पास कुछ भी नहीं था। पापा, दादा-दादी सभी साहूकारों के यहां काम करने के लिए जाते थे। दिहाड़ी मजदूरी करते थे।

इसी से घर चलता था। जब वे 11वीं में आए, तो उन्होंने साहूकारों के यहां काम करने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगी। हम एक भाई और एक बहन हैं।

मेरी दिलचस्पी बचपन से पढ़ने-लिखने से ज्यादा अलग-अलग कामों में रहती थी। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। जिस गांव में मूलभूत सुविधाएं नहीं, वहां मैंने बिजनेस के बारे में सोचना शुरू किया।

शुरुआत में इंजीनियर बनना चाहता था, तो पापा ने कोटा में कोचिंग में एडमिशन करवा दिया। इससे पहले 12वीं में दो बार फेल हो चुका था। जब कोटा में तैयारी कर रहा था, तो कुछ और करने का मन किया।’

पापा ने डांटा नहीं?

‘उनका कहना था कि जो करना है करो। मैं कोटा से वापस अपने गांव आ गया। यहां मैंने अपनी डिजिटल मार्केटिंग की एक कंपनी शुरू की। आसपास में बिजनेस वालों को कोई ऐड या किसी नेता-पॉलिटिशियन को कैंपेनिंग करना होता था, तो मैं उनका सोशल मीडिया हैंडल करता था।

बाद में मैंने डिजिटल मार्केटिंग का एक कोर्स भी किया, फिर इंदौर में अपनी कंपनी बना ली।’

सरोज के पति यानी अमित के पिता बाबुल प्रजापति अपनी ट्रांसफर्मर बनाने की फैक्ट्री गए हुए हैं। अमित कहते हैं, ‘पापा की अपनी फैक्ट्री है। शुरू में हमारे पास कुछ भी नहीं था। पापा, दादा-दादी सभी साहूकारों के यहां काम करने के लिए जाते थे। दिहाड़ी मजदूरी करते थे।

इसी से घर चलता था। जब वे 11वीं में आए, तो उन्होंने साहूकारों के यहां काम करने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगी। हम एक भाई और एक बहन हैं।

मेरी दिलचस्पी बचपन से पढ़ने-लिखने से ज्यादा अलग-अलग कामों में रहती थी। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। जिस गांव में मूलभूत सुविधाएं नहीं, वहां मैंने बिजनेस के बारे में सोचना शुरू किया।

शुरुआत में इंजीनियर बनना चाहता था, तो पापा ने कोटा में कोचिंग में एडमिशन करवा दिया। इससे पहले 12वीं में दो बार फेल हो चुका था। जब कोटा में तैयारी कर रहा था, तो कुछ और करने का मन किया।’

पापा ने डांटा नहीं?

‘उनका कहना था कि जो करना है करो। मैं कोटा से वापस अपने गांव आ गया। यहां मैंने अपनी डिजिटल मार्केटिंग की एक कंपनी शुरू की। आसपास में बिजनेस वालों को कोई ऐड या किसी नेता-पॉलिटिशियन को कैंपेनिंग करना होता था, तो मैं उनका सोशल मीडिया हैंडल करता था।

बाद में मैंने डिजिटल मार्केटिंग का एक कोर्स भी किया, फिर इंदौर में अपनी कंपनी बना ली।’

सरोज के पति यानी अमित के पिता बाबुल प्रजापति अपनी ट्रांसफर्मर बनाने की फैक्ट्री गए हुए हैं। अमित कहते हैं, ‘पापा की अपनी फैक्ट्री है। शुरू में हमारे पास कुछ भी नहीं था। पापा, दादा-दादी सभी साहूकारों के यहां काम करने के लिए जाते थे। दिहाड़ी मजदूरी करते थे।

इसी से घर चलता था। जब वे 11वीं में आए, तो उन्होंने साहूकारों के यहां काम करने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगी। हम एक भाई और एक बहन हैं।

मेरी दिलचस्पी बचपन से पढ़ने-लिखने से ज्यादा अलग-अलग कामों में रहती थी। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। जिस गांव में मूलभूत सुविधाएं नहीं, वहां मैंने बिजनेस के बारे में सोचना शुरू किया।

शुरुआत में इंजीनियर बनना चाहता था, तो पापा ने कोटा में कोचिंग में एडमिशन करवा दिया। इससे पहले 12वीं में दो बार फेल हो चुका था। जब कोटा में तैयारी कर रहा था, तो कुछ और करने का मन किया।’

पापा ने डांटा नहीं?

‘उनका कहना था कि जो करना है करो। मैं कोटा से वापस अपने गांव आ गया। यहां मैंने अपनी डिजिटल मार्केटिंग की एक कंपनी शुरू की। आसपास में बिजनेस वालों को कोई ऐड या किसी नेता-पॉलिटिशियन को कैंपेनिंग करना होता था, तो मैं उनका सोशल मीडिया हैंडल करता था।

बाद में मैंने डिजिटल मार्केटिंग का एक कोर्स भी किया, फिर इंदौर में अपनी कंपनी बना ली।’

सरोज के पति यानी अमित के पिता बाबुल प्रजापति अपनी ट्रांसफर्मर बनाने की फैक्ट्री गए हुए हैं। अमित कहते हैं, ‘पापा की अपनी फैक्ट्री है। शुरू में हमारे पास कुछ भी नहीं था। पापा, दादा-दादी सभी साहूकारों के यहां काम करने के लिए जाते थे। दिहाड़ी मजदूरी करते थे।

इसी से घर चलता था। जब वे 11वीं में आए, तो उन्होंने साहूकारों के यहां काम करने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगी। हम एक भाई और एक बहन हैं।

मेरी दिलचस्पी बचपन से पढ़ने-लिखने से ज्यादा अलग-अलग कामों में रहती थी। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। जिस गांव में मूलभूत सुविधाएं नहीं, वहां मैंने बिजनेस के बारे में सोचना शुरू किया।

शुरुआत में इंजीनियर बनना चाहता था, तो पापा ने कोटा में कोचिंग में एडमिशन करवा दिया। इससे पहले 12वीं में दो बार फेल हो चुका था। जब कोटा में तैयारी कर रहा था, तो कुछ और करने का मन किया।’

पापा ने डांटा नहीं?

‘उनका कहना था कि जो करना है करो। मैं कोटा से वापस अपने गांव आ गया। यहां मैंने अपनी डिजिटल मार्केटिंग की एक कंपनी शुरू की। आसपास में बिजनेस वालों को कोई ऐड या किसी नेता-पॉलिटिशियन को कैंपेनिंग करना होता था, तो मैं उनका सोशल मीडिया हैंडल करता था।

बाद में मैंने डिजिटल मार्केटिंग का एक कोर्स भी किया, फिर इंदौर में अपनी कंपनी बना ली।’

सरोज के पति यानी अमित के पिता बाबुल प्रजापति अपनी ट्रांसफर्मर बनाने की फैक्ट्री गए हुए हैं। अमित कहते हैं, ‘पापा की अपनी फैक्ट्री है। शुरू में हमारे पास कुछ भी नहीं था। पापा, दादा-दादी सभी साहूकारों के यहां काम करने के लिए जाते थे। दिहाड़ी मजदूरी करते थे।

इसी से घर चलता था। जब वे 11वीं में आए, तो उन्होंने साहूकारों के यहां काम करने के साथ-साथ इलेक्ट्रिक का काम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे घर के हालात सुधरने लगी। हम एक भाई और एक बहन हैं।

मेरी दिलचस्पी बचपन से पढ़ने-लिखने से ज्यादा अलग-अलग कामों में रहती थी। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। जिस गांव में मूलभूत सुविधाएं नहीं, वहां मैंने बिजनेस के बारे में सोचना शुरू किया।

शुरुआत में इंजीनियर बनना चाहता था, तो पापा ने कोटा में कोचिंग में एडमिशन करवा दिया। इससे पहले 12वीं में दो बार फेल हो चुका था। जब कोटा में तैयारी कर रहा था, तो कुछ और करने का मन किया।’

पापा ने डांटा नहीं?

‘उनका कहना था कि जो करना है करो। मैं कोटा से वापस अपने गांव आ गया। यहां मैंने अपनी डिजिटल मार्केटिंग की एक कंपनी शुरू की। आसपास में बिजनेस वालों को कोई ऐड या किसी नेता-पॉलिटिशियन को कैंपेनिंग करना होता था, तो मैं उनका सोशल मीडिया हैंडल करता था।

बाद में मैंने डिजिटल मार्केटिंग का एक कोर्स भी किया, फिर इंदौर में अपनी कंपनी बना ली।’

सरोज अलग-अलग तरह के मसालों को कच्चे कटे हुए आम के साथ मिला रही हैं।

मैंने पूछा कि कितने पैसे में शुरू किया था यह बिजनेस?

कहती हैं, ‘जब हमने अचार बनाने का सोचा, तो महज 4 हजार रुपए से शुरुआत की। मन में डर भी था कि यह चलेगा या नहीं ।

एक महीने तक अकेले खुद से अचार बनाती। फिर पैकेजिंग करती और ऑनलाइन सेल करती। बेटा (अमित) सोशल मीडिया पर प्रोडक्ट को प्रमोट करने लगा। थोड़ी डिमांड बढ़ी तो मैंने गांव की ही एक-दो महिलाओं को अपने तरीके से आचार बनाने की ट्रेनिंग देनी शुरू की। इससे उन्हें रोजगार मिला और मेरी मदद भी हो गई।’

आपको लगा कि इस काम में सफल हो जाएंगी?

सरोज सकुचाते हुए कहती हैं, ‘सच कहूं तो जब अचार बनाना शुरू किया, तो शुरुआत में तो घरवालों को यही लग रहा था कि यह अचार भी कोई बिजनेस की चीज है। जब परिवार से ऐसा रिएक्शन मिला तो शर्म से हमने तीन-चार महीने तक इस बारे में किसी को बताया भी नहीं। डिलीवरी पार्टनर आता था, प्रोडक्ट लेकर चला जाता था।

चुनौतियां कम नहीं थी इस बिजनेस में। जिस गांव से हमने यह काम शुरू किया, वहां ठीक-ठाक न सड़क है न कोई सुविधा, ऐसी जगह से ऑनलाइन प्रोडक्ट बेचते थे हमलोग। कई बार तो ऐसा होता कि डिलीवरी पार्टनर कहता कि वह आज नहीं, कल पैकेट लेने के लिए आएगा। इस वजह से कस्टमर को डिलीवरी देने में देर हो जाती थी।

हमने हार नहीं मानी ईमानदारी से काम करते रहे। कभी हमने सोचा नहीं था कि अचार बेचकर एक करोड़ के करीब का बिजनेस महज एक साल में कर रहे होंगे। अभी 30-35 महिलाओं को रोजगार दे रहे हैं।’

अमित की कंपनी अभी 4 कैटेगरी में अचार बना रही है। आम, नीबू, मिर्च और मिक्स्ड…। सरोज कहती हैं, ‘हमने शुद्धता का पूरा ख्याल रखा है। यही वजह है कि हमारे 80% के करीब रिपीटेड कस्टमर होते हैं।

रॉ मटेरियल में सबसे मुख्य सरसों का तेल होता है। सरसों खरीदकर तेल निकालते हैं। सारे मसाले घरों में तैयार किया जाता है। आम, नीबू, मिर्च आसपास के किसानों से खरीदते हैं।

आज जब काम करने वाली महिलाओं के हाथ में सैलरी मिलती है, तो उनकी आंखों की चमक देखते बनती है। जो लोग कभी हमारे साथ भेदभाव करते थे, वह भी मेरी फैमिली को इज्जत-सम्मान देते हैं। अच्छा लगता है यह सब देखकर।’

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