पीएम नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम के 112वें एडिशन में राजस्थान की 'कुल्हाड़ी बंद पंचायत' का जिक्र किया

पीएम मोदी ने अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर बाघों के संरक्षण की बात करते हुए कहा था-   राजस्थान के रणथम्भौर से शुरू हुआ 'कुल्हाड़ी बंद पंचायत' अभियान बहुत दिलचस्प है। स्थानीय समुदायों ने स्वयं इस बात की शपथ ली है कि जंगल में कुल्हाड़ी के साथ नहीं जाएंगे और पेड़ नहीं काटेंगे। इस एक फैसले से यहां के जंगल, एक बार फिर से हरे-भरे हो रहे हैं। बाघों के लिए बेहतर वातावरण तैयार हो रहा है।

 नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम के 112वें एडिशन में राजस्थान की 'कुल्हाड़ी बंद पंचायत' का जिक्र किया। ये वो पंचायत थी- जिसकी वजह से रणथम्भौर जंगल का दूसरा हिस्सा (करौली) बचाया गया।

32 साल पहले शुरू हुई इस पंचायत की वजह कुछ ऐसी है। भेड़ों की वजह से ये जंगल खत्म होने लगे थे और यहीं से इसकी शुरुआत हुई। उजड़ता हुआ जंगल महज चार साल में फिर से हरा-भरा हो गया।

इस दौरान रणथम्भौर में टीसी वर्मा सीसीएफ के पद पर तैनात थे। अब वे रिटायर्ड हो चुके हैं और जब इस अभियान की शुरुआत की तो वे करौली के कैलादेवी सेंचुरी में एसीएफ के पद पर तैनात थे।

रणथम्भौर के दो हिस्से- पहला सवाई माधोपुर और दूसरा करौली
साल 1989 से लेकर 1993 में मेरी पोस्टिंग करौली के कैला देवी में थी। रण​थम्भौर टाइगर रिजर्व के दो हिस्से है। पहला सवाई माधोपुर और दूसरा करौली (800 वर्ग किलोमीटर)। कुल्हाड़ी बंद पंचायत का जो जिक्र किया गया है, वह करौली वाले टाइगर रिजर्व की बात है।

इसकी कहानी काफी रोचक है। उस समय मारवाड़ की तरफ से बड़ी संख्या में लोग रेवड़ (भेड़-बकरियों का झुंड) लेकर एमपी की तरफ जाते थे। ये इनका रूट सवाई माधोपुर, करौली और धौलपुर होते हुए एमपी की तरफ था।

इस बीच में यहां कैला देवी के जंगल का हिस्सा भी पड़ता था। इस जंगल से निकलने के लिए व​न विभाग की ओर से परमिट जारी किया जाता था। इस बीच पता चला कि जंगल से निकलने के दौरान ये एमपी की तरफ बढ़ने की बजाय दो से ती महीने यहीं पर डेरा डालकर रहने लगे। इसी जंगल में ये मवेशी चराते रहते थे।

भेड़ों की वजह से पत्तियां खत्म हो गईं, पेड़ काटने लगे
टीसी वर्मा ने बताया- इस जंगल में धोक के पेड़ काफी हैं। इन्हीं की वजह से यहां पर घास भी अच्छी होती थी। तीन महीने तक मवेशी जब रुकने लगे तो वे इनकी पत्तियों के साथ जंगल के घास भी खाने लगे। 1991 में हालात ये हो गए कि मानसून की घास सर्दियों में ही खत्म हो गई।

इधर, घास खत्म होने लगी तो ग्रामीण भी धोक के पेड़ों की टहनियां काटकर ले जाने लगे। मवेशियों के लिए चारा और पत्तियां खत्म होने लगे। पेड़ों की जगह केवल तना ही नजर आने लगा।

 

 

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